स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक देसी रियासतें मौजूद थीं, जो ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं थीं परंतु उनसे जुड़े विभिन्न प्रकार के संधियों से बंधी थीं। 1947 में जब भारत स्वतंत्र होने के कगार पर खड़ा था, तब अधिकांश देशवासियों के लिए स्वतंत्रता का मतलब ब्रिटिश शासन के चंगुल से मुक्ति होता था, परंतु देसी रियासतों के शासकों की प्राथमिकताएं भिन्न थीं।
उन रियासतों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि वे अपनी स्वायत्तता को बनाए रखना चाह रही थीं। इन शासकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि वे अपने राज्यों की संप्रभुता को कैसे सुरक्षित रखें और नए स्वतंत्र भारत में अपना स्थान कैसे सुनिश्चित करें। बहुत सी रियासतें, जैसे हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर, ने अपने भविष्य के विषय में विभिन्न प्रकार की योजनाएं बनाई थीं, और उन्होंने भारतीय संघ में शामिल होने की बजाय स्वतंत्र रहने का मन बनाया।
जहां बहुत से भारतीय खुश थे और स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में लगे थे, वहीं इन रियासतों में यह चिंता थी कि वे अपने राज्यों के अधिकारों को कैसे संरक्षित करें। इस संदर्भ में, यह कहना उचित होगा कि भारत की अनेक रियासतें तब भी संप्रभुता और संरक्षण की विचारधाराओं के बीच झूल रही थीं।
इस दौरान, स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने भी रियासतों के महत्व को समझा और उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए प्रयास शुरू किए। सरदार वल्लभभाई पटेल का शांतिपूर्ण एकीकरण का प्रयास इन्हीं रियासती शासकों को प्रेरित करने हेतु एक प्रमुख कदम था। यह समय राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण तथा जटिल था, जिसमें कई समझौतें और बातचीत हुईं।
आजादी और विभाजन की घड़ी
15 अगस्त 1947 की तारीख भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह वह दिन था जब भारत ने ब्रिटिश शासन से आजादी पाई, और देश ने अपनी स्वतंत्रता का पहला जश्न मनाया। लेकिन इस ऐतिहासिक मौके की खुशियों के बीच विभाजन का साया भी छाया रहा। भारत और पाकिस्तान के रूप में दो नए देशों का निर्माण इसी काल में हुआ, जिससे उपमहाद्वीप की जनता के जीवन में एक बड़ी उथल-पुथल मची।
विभाजन की प्रक्रिया ने लाखों लोगों को अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर कर दिया। पंजाब और बंगाल के इलाकों में बंटवारे के कारण हिंसा और सांप्रदायिक संघर्ष व्यापक रूप से फैल गए। लोग अपने प्राचीन निवास स्थानों को छोड़कर नए सीमा क्षेत्रों की ओर भागने को मजबूर हुए। इस दौरान बड़ी संख्या में लोगों ने जान और माल की भारी हानि झेली, जिसकी टीस आज भी महसूस की जाती है।
भारत की स्वतंत्रता और विभाजन की अधिकांश प्राथमिक तैयारियां ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई थीं। लॉर्ड माउंटबेटन, जो उस समय भारत के आखिरी वायसराय थे, ने विभाजन की रूपरेखा तैयार की थी और 14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को भारत और पाकिस्तान के स्वतंत्र राष्ट्र बनने की घोषणा की थी। पाकिस्तान 14 अगस्त को आधिकारिक तौर पर स्वतंत्र हुआ, जबकि भारत ने 15 अगस्त को अपनी आजादी का पहला दिन मनाया। इस असमंजस से कुछ क्षेत्रों में कन्फ्यूजन बढ़ गया और दोनों देशों के अनगिनत नागरिक अनिश्चितता और संघर्ष के वातावरण में फंस गए।
इस प्रकार, स्वतंत्रता के इस ऐतिहासिक पल के साथ-साथ विभाजन की त्रासदी भी जुड़ी हुई है, जिसने न केवल भौगोलिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण को भी मजबूत किया। 15 अगस्त का यह दिन न केवल स्वतंत्रता का प्रतीक है, बल्कि विभाजन की कड़वी यादों को भी समेटे हुए है, जिसने उपमहाद्वीप का सामाजिक ताना-बाना बदल कर रख दिया।
रियासतों का स्वतंत्र सत्ता का दावा
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, कई देशी रियासतों ने स्वतंत्र सत्ता का दावा किया। वे न केवल अपनी स्वायत्तता पर जोर दे रहे थे बल्कि भारत सरकार के साथ बातचीत में भी लिप्त थे। इनमें मुख्य रूप से हैदराबाद, जूनागढ़, और कश्मीर जैसी प्रमुख रियासतें शामिल थीं। इन रियासतों ने अपनी स्वतंत्रता और विशिष्ट पहचान को बनाए रखने के लिए अलग-अलग मार्ग अपनाए।
हैदराबाद राज्य, निजाम के अधीन, भारत का सबसे समृद्ध और महत्वपूर्ण रियासत था। निजाम ने खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयास किया। भारत सरकार के साथ विवादों और वार्तालापों के बावजूद, उनकी स्वतंत्रता की घोषित नीति जारी रही। हैदराबाद की इस स्थिति ने भारत के अन्य हिस्सों में भी राजनीतिक असंतोष भड़काया।
दूसरी ओर, जूनागढ़ ने अपनी मौलिकता को बचाने के लिए एक अलग रणनीति अपनाई। जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान के साथ विलय की घोषणा की, हालाँकि वहाँ की स्थानीय जनता ने इसका तीव्र विरोध किया। इस विवाद ने भारत और पाकिस्तान के बीच एक महत्वपूर्ण समस्या को जन्म दिया और अंततः भारत सरकार को सैन्य हस्तक्षेप के माध्यम से रियासत पर नियंत्रण लेने के लिए मजबूर किया।
कश्मीर की स्थिति अन्य रियासतों से भी अधिक जटिल थी। महाराजा हरि सिंह ने स्वतंत्र रहने के अपने अधिकार का दावा करते हुए भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी के साथ भी तुरंत विलय नहीं किया। उनके निर्णय ने कश्मीर को एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया जो आज भी विवाद का विषय बना हुआ है।
इन रियासतों की रणनीतियाँ और उनके दृष्टिकोण न केवल उनके इतिहास को परिभाषित करते हैं, बल्कि स्वतंत्रता के उस मौके को भी रेखांकित करते हैं जब उनके अलग-अलग दावे और भारत सरकार के साथ बातचीत ने एक नयी दिशा की ओर अग्रसर किया। इन घरेलू रियासतों का स्वतंत्र सत्ता का दावा और बौद्धिक संघर्ष भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीतिक धारा को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
रियासतों की चुनौतियाँ और दुविधाएं
देश की आजादी के समय अनेक रियासतों ने न केवल अपनी स्वतंत्रता, बल्कि अपनी पहचान कायम रखने की कोशिश की। उन रियासतों के हुक्मरानों के सामने कई प्रकार की चुनौतियाँ और दुविधाएं थीं। सबसे पहले, राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इन रियासतों के देसी हुक्मरानों को अपनी सत्ता बनाए रखने की चिंता सताती थी। ब्रिटिश हुकूमत के खत्म होते ही सत्ता का भविष्य अनिश्चित हो गया था।
अनेक रियासतों में राष्ट्रिय आंदोलनों की उठती लहरों ने स्थिरता को चुनौती दी। जिन देसी शासकों ने लंबे समय तक ब्रिटिश साम्राज्य के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते बनाए रखे थे, उनके लिए नया राजनीतिक परिदृश्य समझने एवं स्वीकारने में कठिनाई हो रही थी। तिरंगे का न फहराया जाना उनकी इसी असमंजस की प्रतीक हो सकता है।
सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियाँ भी कम नहीं थीं। अनेक रियासतें अपने प्राचीन परंपराओं और सामाजिक धारणाओं पर गर्व करती थीं। इन देसी राज्यों के लिए अचानक विचारधाराओं और राष्ट्रीय पहचान के बदलाव को अपनाना कठिन था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बढ़ते राष्ट्रीय एकता के आंदोलन ने उनकी मौलिकता और विशिष्ट पहचान पर सवाल खड़े कर दिए थे।
आर्थिक दृष्टि से भी ये रियासतें नए देश की बदलती नीतियों और योजनाओं को लेकर हिचकिचा रही थीं। ब्रिटिश शासन के दौरान कई रियासतों को उनका राजस्व, कृषि और व्यापार प्रणाली में स्वायत्तता प्राप्त थी। आजादी के बाद की नई आर्थिक नीतियों और सुधारों के तहत उन्हें अपने पुराने आर्थिक ढांचों को बदलने की आवश्यकता महसूस हुई, जो उनके लिए महत्वपूर्ण चुनौती बन गई।
समग्र रूप से देखें तो भारतीय रियासतों के हुक्मरानों के सामने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण अंतःस्थल तक दुविधाएं थीं। वे अपनी पहचान, सत्ता और परंपराओं की रक्षा के साथ-साथ नए देश की आकांक्षाओं के साथ तालमेल बैठाने की कठिनाइयों से जूझ रहे थे।
सरदार पटेल की ‘आईरन फिस्ट’ नीति
भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने विभाजन के समय देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए अद्वितीय और प्रभावी नीति अपनाई, जिसे ‘आईरन फिस्ट’ नीति के नाम से जाना जाता है। इस नीति के तहत, सरदार पटेल ने स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया कि रियासतें या तो स्वेच्छा से भारतीय संघ का हिस्सा बनें, अन्यथा उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
सरदार पटेल की ‘आईरन फिस्ट’ नीति का प्रमुख उद्देश्य था देश की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करना। उन्होंने विभिन्न रियासतों के नवाबों और महाराजाओं से व्यक्तिगत रूप से बातचीत की और उन्हें राष्ट्रीय एकता के महत्व को समझाया। इस नीति के तहत, पटेल ने सैन्य और कूटनीतिक दोनों तरीकों का इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों ने शुरू में भारतीय संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया था।
सरदार पटेल ने स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ हैदराबाद की रियासत को सैन्य अभियान द्वारा भारत में विलीन कर दिया, जो ‘ऑपरेशन पोलो’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके माध्यम से, भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया और वहां की कमान अपने हाथ में ली। इसी प्रकार, जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में विलय की घोषणा की, परंतु पटेल ने इसे भी सैन्य और कूटनीतिक प्रयासों द्वारा समाप्त कर दिया और इसे भारतीय संघ का हिस्सा बना लिया।
सरदार पटेल की इस कठोर और सशक्त नीति ने देश की स्वतंत्रता और सामरिक सुरक्षा को बल प्रदान किया। उनकी ‘आईरन फिस्ट’ नीति ने रियासतों को स्पष्ट रूप से यह सन्देश दिया कि भारतीय संघ से अलग होना किसी भी दृष्टि से लाभप्रद नहीं होगा। इसप्रकार, सरदार पटेल की दूरदर्शिता और निर्णायक नेतृत्व ने एक मजबूत और संगठित भारत की नींव रखी।
विशेष रियासतों की कहानियाँ
भारत की स्वतंत्रता के बाद जब देशभर में तिरंगे का आनन्द और उत्साह देखा गया, कुछ ऐसे भी रियासतें थीं जहां तिरंगा नहीं फहराया गया था। इन रियासतों में हैदराबाद, भोपाल और जूनागढ़ प्रमुख थे। इनकी कहानियाँ अद्वितीय और जटिल हैं, जो आज भी इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए रोचक विषय हैं।
हैदराबाद, जो उस समय निज़ाम की रियासत थी, एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा था। निज़ाम उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन नहीं आना चाहता था और स्वतंत्र राज्य के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखना चाहता था। इस कारण हैदराबाद ने तिरंगा नहीं फहराने का निर्णय लिया, जिसे बाद में भारत सरकार और निज़ाम की सेना के बीच मुठभेड़ में बदलना पड़ा।
दूसरी प्रमुख रियासत भोपाल थी, जहां के नवाब हमीदुल्ला खान ने स्वतंत्रता से पहले ही पाकिस्तान के साथ जुड़ने की इच्छा जताई थी। किन्तु, जनसमर्थन की कमी और विभिन्न आन्तरिक मुद्दों के चलते यह संभव नहीं हो पाया। नवाब ने तिरंगा फहराने से परहेज किया और स्थिति तनावपूर्ण रही। अंततः इसे भारतीय गणराज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
तीसरी प्रमुख रियासत जूनागढ़ थी, जहां नवाब महाबत खान ने पाकिस्तान के साथ जुड़ने की घोषणा की थी। हालांकि, जूनागढ़ की जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा हिंदू था और उन्होंने इस निर्णय का विरोध किया। फलस्वरूप वहाँ उथल-पुथल मच गई और जल्द ही भारतीय सेना ने जूनागढ़ पर कब्जा कर लिया। इस कारण यहां भी तिरंगा स्वतंत्रता के पहले जश्न में नहीं फहराया गया।
इन स्वतंत्र रियासतों ने तिरंगा न फहराने के पीछे अपने-अपने तर्क और कारण थे। यह कहानियाँ आज भी भारत की स्वतंत्रता और उसकी संप्रभुता की जटिल यात्राओं की गवाह हैं।
विलय का पूरा होना और स्वतंत्रता की ख़ुशी
स्वतंत्रता के समय भारतीय उपमहाद्वीप में सैकड़ों रियासतें थीं जिनका स्वतंत्र अस्तित्व था। विभिन्न सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक विशेषताओं वाली ये रियासतें स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत, सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन के दक्ष नेतृत्व में इन रियासतों को भारतीय संघ में विलय करना आरंभ किया गया। यह प्रक्रिया केवल राजनीतिक ही नहीं, अपितु सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों के दृष्टिकोण से भी चुनौतीपूर्ण थी।
इन रियासतों के शासकों को विभिन्न परिस्थितियों में निर्णय लेना पड़ा। कुछ रियासतें भारत में विलय के लिए तत्पर थीं, जबकि कुछ ने प्रारंभ में कठिनाइयों का अनुभव किया और अपने स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। सर्वोत्तम नीतियों और संवादों के माध्यम से बहुत सी रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय संघ में सम्मिलित होने का निर्णय लिया, जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिला। हालांकि, कुछ रियासतों के मामले में सैन्य हस्तक्षेप और राजनीतिक दबाव का सहारा लेना पड़ा। यह स्थिति खासकर हैदराबाद और जूनागढ़ के मामलों में देखी गई।
विलय के पश्चात, भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में स्वतंत्रता का उल्लास और उत्साह फैल गया। जगह-जगह पर हर्षोल्लास और उत्सव का माहौल था। रियासतों में प्रशासनिक मामलों का सही तरीके से समायोजन करके उन्हें भारतीय राज्य में परिवर्तित किया गया। रियासती संरचना को बदलकर नए राज्यों का निर्माण हुआ और उन पर भारतीय संविधान की संप्रभुता लागू की गई, जिससे जनमानस में आत्मविश्वास और एकता की भावना प्रबल हुई।
इस संपूर्ण प्रक्रिया में, आजादी के पश्चात राष्ट्रीय एकजुटता की मजबूती और सार्वजनिक जीवन में परिवर्तन के विस्तृत प्रयास किए गए। इन सबके अंतर्गत, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का महत्त्व स्पष्ट हुआ, और यह दर्शाया गया कि देश का हर हिस्सा एक साथ मिलकर एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण करने में सक्षम है।
आधुनिक भारत पर प्रभाव
आजादी से पहले देश की कई रियासतों में तिरंगा नहीं फहराया गया था, और इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का आधुनिक भारत पर प्रभाव अत्यधिक गहरा है। राजनीतिक दृष्टिकोण से, इन रियासतों का संघर्ष और उनका भारत संघ में विलय, राष्ट्र की अखंडता और राजनीतक स्थायित्व के प्रमाणीकरण में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह विलय न केवल क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धाओं का समाधान था, बल्कि इससे एक सशक्त और एकीकृत भारत का निर्माण हुआ।
संस्कृतिक दृष्टिकोण से, इन रियासतों के विभिन्न क्षेत्रीय परंपराओं और संस्कृतियों का एक अद्वितीय संगम हुआ, जिसने भारत की सांस्कृतिक विविधता को समृद्ध किया। विभिन्न प्रांतों की स्थानीय विरासत, रीति-रिवाज, और भाषाओं ने भारत की सांस्कृतिक विविधता को एक नए आयाम पर पहुँचाया। इस प्रक्रिया ने एक भारत-त्व का बोध कराया, जो आज भी देश के सांस्कृतिक दृष्टि को परिभाषित करता है।
प्रशासनिक संरचना में भी इन रियासतों के विलय ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस एकीकरण ने आधुनिक भारत की प्रशासनिक प्रणाली को एक संगठित और प्रभावशाली रूप दिया। केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच सामंजस्य स्थापित हुआ, जिससे राष्ट्रव्यापी कानून और नीति निर्धारण में समरूपता आई। इस प्रक्रिया ने प्रशासनिक दक्षता और जवाबदेही को बढ़ाया, जिससे भारतीय शासन प्रणाली अधिक व्यवस्थित और प्रभावशाली बनी।
समग्र रूप में, आजादी के पहले रियासतों के संघर्ष और उनके विलय ने न केवल भारतीय समाज को एकीकृत किया, बल्कि आधुनिक भारत की राजनीतिक, सांस्कृतिक, और प्रशासनिक संरचना को भी मजबूती प्रदान की। यह एकता और विविधता का अद्वितीय मेल, वर्तमान भारत की शक्ति और सौंदर्य का प्रमुख आधार है।
1. आजादी के पहले किन रियासतों में तिरंगा नहीं फहराया गया था?
आजादी से पहले कई रियासतें थीं जहाँ तिरंगा नहीं फहराया गया, जैसे हैदराबाद, जूनागढ़, और भोपाल।
2. इन रियासतों में तिरंगा क्यों नहीं फहराया गया?
इन रियासतों के नवाब और महाराजाओं ने भारत में विलय का विरोध किया, जिसके कारण वहां तिरंगा नहीं फहराया गया।
3. हैदराबाद रियासत में तिरंगा क्यों नहीं फहराया गया?
हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का विरोध किया और खुद को स्वतंत्र घोषित किया, इसलिए वहां तिरंगा नहीं फहराया गया।
4. जूनागढ़ रियासत का क्या कारण था?
जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में विलय की घोषणा की थी, इस कारण वहां तिरंगा नहीं फहराया गया।
5. भोपाल रियासत में तिरंगा क्यों नहीं फहराया गया?
भोपाल के नवाब ने भारत में विलय का विरोध किया और अपने स्वतंत्र राज्य की मांग की, जिसके कारण वहां तिरंगा नहीं फहराया गया।
6. क्या इन रियासतों के निवासियों ने तिरंगे का समर्थन किया था?
इन रियासतों के कुछ निवासियों ने तिरंगे का समर्थन किया, लेकिन अधिकांशत: इन रियासतों के शासकों की वजह से तिरंगा नहीं फहराया गया।
7. क्या इन रियासतों के विरोध का कोई हल निकला?
बाद में भारतीय सेना के हस्तक्षेप से इन रियासतों का भारत में विलय किया गया और वहां तिरंगा फहराया गया।
8. हैदराबाद रियासत का भारत में कब विलय हुआ?
हैदराबाद रियासत का भारत में 17 सितंबर 1948 को विलय हुआ था।
9. जूनागढ़ रियासत का भारत में कब विलय हुआ?
जूनागढ़ रियासत का भारत में 9 नवंबर 1947 को विलय हुआ था।
10. भोपाल रियासत का भारत में कब विलय हुआ?
भोपाल रियासत का भारत में 1 जून 1949 को विलय हुआ था।
11. भारत सरकार ने इन रियासतों के लिए क्या कदम उठाए?
भारत सरकार ने इन रियासतों के शासकों से बातचीत की और जब वे नहीं माने, तब सैन्य कार्रवाई कर इन्हें भारत में विलय किया।
12. क्या सभी रियासतों का भारत में शांतिपूर्ण विलय हुआ था?
अधिकांश रियासतों का विलय शांतिपूर्ण हुआ था, लेकिन कुछ रियासतों में सैन्य हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी।
13. इन रियासतों के शासकों का क्या हुआ?
इन रियासतों के शासकों को सम्मानजनक तरीके से उनके पदों से हटाया गया और उन्हें पेंशन प्रदान की गई।
14. क्या तिरंगे का विरोध करने वाले शासकों को सजा मिली?
नहीं, उन्हें सजा नहीं मिली, बल्कि भारत सरकार ने उन्हें सम्मानजनक पेंशन दी।
15. इन रियासतों के निवासियों का भारत में विलय पर क्या विचार था?
अधिकांश निवासियों ने भारत में विलय का समर्थन किया, क्योंकि वे ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता चाहते थे।
16. क्या भारत में विलय के बाद इन रियासतों में कोई विरोध हुआ?
कुछ स्थानों पर विरोध हुआ, लेकिन भारतीय सेना ने स्थिति को संभाल लिया।
17. क्या इन रियासतों के भारत में विलय के बाद वहां का विकास हुआ?
जी हां, भारत में विलय के बाद इन क्षेत्रों में विकास कार्य तेजी से हुए।
18. इन रियासतों के भारत में विलय की प्रक्रिया कितनी जटिल थी?
कुछ रियासतों का विलय बेहद जटिल था, खासकर हैदराबाद और जूनागढ़, जहां सैन्य हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी।
19. क्या अन्य रियासतों में भी तिरंगे का विरोध हुआ था?
कुछ छोटी रियासतों में भी विरोध हुआ, लेकिन उनका विलय शांतिपूर्ण तरीके से हुआ।
20. क्या भारत सरकार ने इन रियासतों के लिए कोई विशेष नीति बनाई थी?
भारत सरकार ने इन रियासतों के लिए अलग-अलग नीतियां बनाई थीं, जिनमें सैन्य और कूटनीतिक दोनों तरीके शामिल थे।
21. इन रियासतों का भारत में विलय का क्या ऐतिहासिक महत्व है?
इन रियासतों का भारत में विलय स्वतंत्रता के बाद देश की एकता और अखंडता के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।